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य꣡त्र꣢ बा꣣णाः꣢ स꣣म्प꣡त꣢न्ति कुमा꣣रा꣡ वि꣢शि꣣खा꣡ इ꣢व । त꣡त्र꣢ नो꣣ ब्र꣡ह्म꣢ण꣣स्प꣢ति꣣र꣡दि꣢तिः꣣ श꣡र्म꣢ यच्छतु वि꣣श्वा꣢हा꣣ श꣡र्म꣢ यच्छतु ॥१८६६॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

यत्र बाणाः सम्पतन्ति कुमारा विशिखा इव । तत्र नो ब्रह्मणस्पतिरदितिः शर्म यच्छतु विश्वाहा शर्म यच्छतु ॥१८६६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

य꣡त्र꣢꣯ । बा꣣णाः꣢ । सं꣣प꣡त꣢न्ति । स꣣म् । प꣡त꣢꣯न्ति । कु꣣माराः꣢ । वि꣣शिखाः꣢ । वि꣣ । शिखाः꣢ । इ꣣व । त꣡त्र꣢꣯ । नः꣣ । ब्र꣡ह्म꣢꣯णः । प꣡तिः꣢꣯ । अ꣡दि꣢꣯तिः । अ । दि꣣तिः । श꣡र्म꣢꣯ । य꣢च्छतु । विश्वा꣡हा꣢ । श꣡र्म꣢꣯ । य꣣च्छतु ॥१८६६॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1866 | (कौथोम) 9 » 3 » 6 » 3 | (रानायाणीय) 21 » 1 » 6 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में युद्ध में विजय की प्रार्थना है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(यत्र) जिस समराङ्गण में (बाणाः) बाण आदि अस्त्र (सम्पतन्ति) गिरते हैं, (विशिखाः कुमाराः इव) जैसे चूड़ाकर्म संस्कार कराये हुए शिखा-रहित बालक चलने का अभ्यास करते हुए पग-पग पर गिरते हैं, (तत्र) उस समराङ्गण में (ब्रह्मणः पतिः) ज्ञान का रक्षक जीवात्मा और महान् राष्ट्र का रक्षक सेनापति तथा (अदितिः) कुतर्कों से खण्डित न होनेवाली बुद्धि और राष्ट्रभूमि (नः) हमें (शर्म) कल्याण (यच्छतु) प्रदान करे, (विश्वाहा) सदा (शर्म) कल्याण (यच्छतु) प्रदान करे। [निरुक्त्त (१०।४०) में कहा गया है कि किसी वाक्य को दोहराने में बहुत सा चमत्कारिक अर्थ प्रकट होता है। जैसे-‘अहो, दर्शनीय है, अहो दर्शनीय है’, इस वाक्य में। उसी के अनुसार यहाँ ‘शर्म यच्छतु’ वाक्य को दुहराने में बहुत-सा अर्थ समाविष्ट है।] ॥३॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥३॥

भावार्थभाषाः -

बाह्य सङ्ग्राम में सेनापति प्रतिपक्षी योद्धाओं को तेज बाणों से काट कर अपने पक्षवालों जैसे को सुख देवे, वैसे ही आध्यात्मिक देवासुरसङ्ग्राम में जीवात्मा काम-क्रोध आदि रिपुओं का छेदन-भेदन करके मनोभूमि को शत्रु-रहित करे ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ युद्धे विजयः प्रार्थ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(यत्र) यस्मिन् समराङ्गणे (बाणाः) शराः, शरादीन्यस्त्राणि (संपतन्ति) संपातं कुर्वन्ति, (विशिखाः कुमाराः इव) यथा कृतचूडाकर्माणः शिखारहिताः बालाः पदनिक्षेपाभ्यासं कुर्वन्तः पदे पदे पतन्ति, (तत्र) तस्मिन् समराङ्गणे (ब्रह्मणः पतिः) ज्ञानस्य रक्षको जीवात्मा, बृहतो राष्ट्रस्य रक्षकः सेनापतिर्वा, (अदितिः) कुतर्कैरखण्डनीया बुद्धिः राष्ट्रभूमिर्वा (नः) अस्मभ्यम् (शर्म) कल्याणम् (यच्छतु) ददातु, (विश्वाहा) सर्वदा (शर्म) कल्याणम् (यच्छतु) ददातु। [अभ्यासे भूयांसमर्थं मन्यन्ते, यथाहो दर्शनीयाहो दर्शनीयेति (निरु० १०।४०) न्यायेनात्र पुनरुक्तौ भूयानर्थः समाविष्टः] ॥३॥२ अत्रोपमालङ्कारः ॥३॥

भावार्थभाषाः -

बाह्ये संग्रामे सेनापतिः प्रतिपक्षिणो भटान् तीक्ष्णैः शरैश्छित्वा स्वपक्षीयेभ्यः सुखं प्रयच्छेत्। तथैवाध्यात्मिके देवासुरसंग्रामे जीवात्मा कामक्रोधादिरिपूंश्छित्त्वा भित्त्वा मनोभूमिं निःसपत्नां कुर्यात् ॥३॥